ससुराल में पहला दिन और रस्‍मों की कुछ खट्टी-मीठी यादों का सफर

ससुराल में पहला दिन और रस्‍मों की कुछ खट्टी-मीठी यादों का सफर

जी हाँ दोस्‍तों, आज बहुत दिनों के बाद इस मंच पर यह लेख लिख रही हूँ, आशा है आज आप अवश्‍य ही पसंद करेंगे ।

“शीर्षक पढ़कर ही मुझे एक परीक्षा का अहसास हुआ” और शायद शादी के बाद हर बहू के लिए एक परीक्षा से कम नहीं होता है।

मुझे लगता है कि वर्तमान में ज़माना बदल गया है और इस बदलते हुए ज़माने की सोच ने हर लड़के और लड़की को शादी से पूर्व मिलने, एक दूसरे से व्‍यक्तिगत रूप से बात करने की छूट देना शुरू कर दी है, जो काफी तारीफे काबिल है। यह वैसे देखा जाए, तो सही भी है, आखिरकार पति-पत्‍नी बनना ही है, साथ में जिंदगी बिताना ही है, “उम्रभर के लिए तो जी हाँ दोस्‍तों पहले से जब जान-पहचान रहेगी”, तो नई-नवेली बहू को ससुराल में पहले दिन कदम रखते ही किसी भी प्रकार की झिझक नहीं होगी, “जैसे कि मुझे हुई थी”। मैं जब ससुराल आई थी, बहुत ही सहमी-सहमी सी आई थी और परिवार में सबका स्‍वभाव समझने में भी समय लग गया था। मैं ठहरी कामकाजी, तो घर और कार्यालय के बीच में तारतम्‍य बैठाना भी ज़रूरी था क्‍योंकि “सभी के सहयोग से ही तो ग्रहस्‍थी चलती है न”।

मन ही मन सोच रही थी कि अभी तो परम्‍परागत शादी की रस्‍मों से कहीं निजात पाई थी, कि ससुराल में आकर दूसरी रस्‍में शुरू हो गई थी। इन्‍ही रस्‍मों के दौरान एक रस्‍म होती है, जिसमें दुल्‍हा-दुल्‍हन को छलनी सिर के ऊपर रखकर नहलाया जाता है और फिर दूसरी रस्‍में होती हैं । मैं एकदम नई-नई इस घर में आई थी, ज़्यादा जानती नहीं थी किसी को और ना ही स्‍वभाव पहचानती थी । “सास-ससुर, शादी-शुदा ननंद, बीच वाले देवर-देवरानी और एक छोटा देवर, जिसकी शादी होनी थी, इन सबके बीच मेरे पति सबसे बड़े बेटे और मैं घर की बड़ी बहू”। ननंद से मेरी मुलाकात पहली बार होने के कारण बात करने में भी झिझक होती थी, ऊपर से उम्र और ओहदे में बड़ी थी।

आप यह सोच रहे होंगे कि मैं यह सब क्‍यों बता कर रही हूँ, क्‍योंकि हर नई-नवेली बहू अपने ससुराल में कदम रखते ही थोड़ी सहमी-सहमी ही रहती है और मन में संकोच रहता है कि अपना निर्वाह यहॉं हो पाएगा या नहीं, मेरा स्‍वभाव घर के सदस्‍य समझ पाएंगे या नहीं । “मेरा सोचना है कि हर बहू का हाल ऐसा ही होता होगा, जैसा कि मेरा हुआ था” । इन सब रस्‍मों के बीच आफत यह होती है कि अपनी पेटी में से ज़रूरत का सामान निकालकर देगा कौन भला? “इसलिए यदि शादी से पहले बहू की घर के सदस्‍यों से जान-पहचान रहे तो शायद यह परेशानी नहीं होगी” । वो तो “इनकी ममेरी बहन यानि मेरी ननंद से मेरी अच्‍छी पहचान हो गई थी” सो उसने मेरी ससुराल में काफी सहायता कर दी थी।

शादी के बाद हमारे यहाँ मायके और ससुराल में सत्‍यनारायण की पूजा बहुत ही अहम् मानी जाती है  । जब ससुराल में पूजा संपन्न हुई, घर में पधारे हुए सभी मेहमानों को केले के पत्‍तल पर खाना परोसा गया, “साथ ही सास द्वारा मुझे भी आदेशित किया गया” कि मैं भी जो मीठे व्‍यंजन बने हैं, उन्‍हें घर आए मेहमानों को आग्रह के साथ परोसूं, तो साहब शुरू हो गई यहाँ से “शादी के बाद बड़ी बहू के नाम से मेरी जीवन-यात्रा” । एक बात यहाँ विशेष हुई कि मेरा शुरू से स्‍वभाव रहा है कि कहीं भी नई जगह पर जाती हूँ तो सब अच्‍छी तरह जाँच परख लेती हूँ, नौकरी जो करती थी तो आदत थी । मैने देखा नंदोई जी को पालक की सब्‍जी पर तेल की बघार पिसी लाल मिर्च डालकर ऊपर से डाली गई, फिर समझ में आया कि ससुराल में सभी तीखा-चटपटा खाना पसंद करते हैं । “मैने यह पहली बार ही देखा, फिर जब मायके में पूजा हुई और नंदोई जी की फरमाईश पर वही पालक की सब्‍जी मेरी मॉं ने बनवाई, तो खाना परोसते वक्‍त मैने अपने परीक्षण के अनुसार मॉं को चुपचाप ही बताया वही बघार बनाने के लिए और सब्‍जी पर परोसने के लिए तो सभी मेहमान मेरी तारीफ करने लगे कि आते ही बहू ने सब समझ लिया है,  आपका घर-संसार अच्‍छा ही चलेगा । “वो दिन एक यादगार बन गया और आज भी सब याद करते हैंं “।

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