गृहस्थ जीवन में बच्चों की जिम्मेदारी केवल माँ की - आखिर क्यों?

गृहस्थ जीवन में बच्चों की जिम्मेदारी केवल माँ की – आखिर क्यों?

श्रुति और अभिषेक की शादी के चार साल बाद उनके घर बेटे का जन्म हुआ, नाम रखा गया विधान। विधान के होने पर सब बहुत खुश थे। श्रुति की माँ ने शुरूआती दिनों में उसका और बेटे का खूब खयाल रखा, तीन महीने बाद सारी जिम्मेदारी श्रुति पर आ गई। नई माँ को जब अपने छोटे से बच्चे की देखभाल खुद करनी होती है तो वो बहुत चिंतित हो जाती है, उसे डर लगा रहता है कि कहीं कुछ गलत न हो जाए बच्चे को चोट ना लग जाए इत्यादि। सारा दिन और सारी रात कैसे गुजरती है बस एक माँ ही जानती है। बच्चे की देखभाल के साथ घर का काम भी देखना, पति का भी ध्यान रखना कोई आसान काम नहीं। एक औरत इस समय मानसिक एवं शारीरिक रूप से कमजोर हो जाती है।

जब श्रुति अभिषेक को अपना हाल सुनाती तो वो कहता कि तुम अकेली नहीं हो सभी माएं ऐसे ही होती हैं, सभी को ये कष्ट उठाने पड़ते हैं। अभिषेक की बात सुन कर श्रुति का मन खट्टा हो जाता, पर वो कैसे उसे समझाती कि इस समय उसे एक सहारे की कितनी जरूरत है। काश अभिषेक केवल उसका हाथ पकड़ कर प्यार से उसकी बात सुनता और उसके परिश्रम की सराहना करता, या फिर प्यार से उसकी पीठ दबाता और उसे अपनी गोद में सिर रखकर आराम कराता। आज के व्यस्त जीवन में भी कई परिवार ऐसे हैं जो मिल-बांट कर अपनी जिम्मेारियां निभाते हैं, ये केवल एक ही साथी का काम नहीं, कि वो औरत है तो वही बच्चे की देखभाल करे। कितने ही पिता अपने बच्चों को संभालने में अपनी पत्नियों की मदद करते हैं, चाहे बच्चों को नहलाना हो, उन्हें पार्क ले जाना हो, पढ़ाई करवानी हो या कुछ और। हर काम में पिता माँ का सहयोगी होता है। वहीं एक ओर श्रुति जैसी पत्नियां होती हैं जिन्हें अपने पतियों का तनिक भी सहारा नहीं मिलता। वो पति ये सोचते हैं कि ये केवल माँ की ही जिम्मेदारी है, जमाने से चली आ रही ऐसी दकियानूसी सोच के दबाव में पति ये भूल जाते हैं कि उनकी पत्नी जो उनकी हमउम्र साथी है, उसे उनकी कितनी जरूरत है, न सिर्फ शारीरिक रूप से बल्कि मानसिक रूप से भी। ऐसा नहीं कि ये सोच केवल एक पिछड़े वर्ग के आदमी की हो बल्कि ऊंचे वर्ग के साक्षर लोगों की भी यही सोच है।

जमाना बदल रहा है, अब महिलाएं बच्चों के साथ-साथ घर और ऑफिस की जिम्मेदरियां बखूबी निभाती हैं, तो क्या आदमी भी गृहस्थी में, बच्चों की परवरिश में हाथ नहीं बांट सकते। जरा सोचिए, जब जिंदगी की गाड़ी एक दूसरे के बिना नहीं चलती, गृहस्थी एक दूसरे के बिना नहीं चलती तो क्या जीवन के कर्तव्य भी साथ मिलकर निभाना नहीं चाहिए तो फिर बच्चों की देखभाल केवल माँ की जिम्मेदारी क्यों?

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