कुछ भुली-बिसरी स्कूल की बचपन की यादें – रामश्री आया के घर के विशेष यादगार पल
इस समूह के सभी पाठकों को मेरा प्रणाम और आप लोग मेरे सभी लेख, कविताएं और कहानियां पढ़ने में भी अपनी दिलचस्पी दिखा रहे हैं, उसके लिए तहेदिल से शुक्रिया अदा करती हूँ और आज फिर हाजिर हूँ, आपके साथ शेयर कर रहीं हूँ कुछ भुली-बिसरी बचपन की स्कूल की यादें ।
पुरानी यादें दिल में समाई हुई रहती हैं, जी हाँ पाठकों और उन अच्छी यादों को संजीवनी के रूप में यादगार बनाने के साथ ही साथ सभी के साथ साझा करना चाहूंगी ।
जी हाँ पाठकों बात उस समय की है जब मैं तीसरी कक्षा में पढ़ती थी । हमारे स्कूल का नाम था “साकेत शिशु मंदिर” जो अपने नाम से ही प्रसिद्ध विद्यार्जन का मंदिर था । ठीक स्कूल के सामने राम मंदिर था और मंदिर के समीप ही सभागार का निर्माण किया गया था ताकि स्कूल के सभी बच्चे एक साथ भोजन ग्रहण कर सकें । हमारी शिक्षिकाओं ने हमें भोजन ग्रहण करने के पूर्व श्लोक बोलना भी सिखाया था और फिर भोजन ग्रहण करते थे ।
इसीलिए तो हमेशा कहा जाता है कि सर्वप्रथम माता-पिता और प्रथम पाठशाला में जो प्रारंभिक शिक्षा और संस्कार सिखाए जाते हैं वह हमारे कुशल व्यक्तित्व में समाहित होते हैं और वह ज्ञान कभी भी भुलाया नहीं जा सकता है । यही ज्ञान हमारी उत्तरोत्तर प्रगति में सहायक सिद्ध होता है ।
जी हाँ पाठकों! उस जमाने में बच्चों को घर से स्कूल लाने-ले जाने के लिए स्कूल की तरफ से मिनीबस या वेन की व्यवस्था आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाती थी और ना ही मोबाइल फोन उपलब्ध थे । अतः बच्चों की सुरक्षा व्यवस्था के लिए स्कूल की तरफ से ही बाई के रूप में आया उपलब्ध कराई जाती थी । उस आया का काम था, हमें रोज सुबह 7:30 बजे घर से लेकर जाना और स्कूल की 12:30 पर छुट्टी होने के पश्चात घर पालकों तक सुरक्षित पहुँचाना था, “उस आया का नाम था रामश्री” । मेरे साथ ज्योती और असलम पढ़ते थे, हम लोग रोज उस रामश्री आया के साथ ही स्कूल जाते और घर आते थे । फिर हम तीनो चौथी-पांचवी कक्षा के बाद अकेले ही स्कूल जाने लगे ।
उस समय पिताजी की कमाई से ही सभी घर खर्च की पूर्ति की जाती थी और माँ घर के सभी काम-काज पूर्ण रूप से करती थी । फिर हम आया रामश्री के साथ स्कूल जाते थे तो माता-पिता भी निश्चिंत होकर अपने कार्य करते थे और स्कूल की भी बच्चे की सुरक्षा व्यवस्था की पूर्ण रूप से जवाबदारी होती थी ।
आप लोग सोच रहे होंगे कि मैं यह सब क्यों शेयर कर रही हूँ तो बात कुछ यूं थी कि हम लोग रोज उस रामश्री आया के साथ आते-जाते थे, तो एक अनोखा रिश्ता बन गया था और वह हमेशा कहती थी कि बेटा जब स्कूल का अंतिम दिन होगा, “उस दिन तुम तीनों को मेरे घर जरूर चलना होगा” । और यह बात हम लोग अपनी माताओं को बताना भूल गए, परीक्षा का समय निकट था सो अध्ययन में जुट गए ।
आखिरकार वह दिन भी आ ही गया स्कूल की सभी परीक्षाएं समाप्त हो गई थी और सभी शिक्षक-शिक्षिकाओं ने स्कूल में फेरवल रखी थी ।
अब भैय्या फेरवल के लिए तैयार होकर गये हम तीनों स्कूल और फेरवल के कार्यक्रम में भी देर हो गई । उस समय फोन भी उपलब्ध नहीं थे तो घर पर सूचित करने का कोई माध्यम ही नहीं था । उसी समय रामश्री आया जो है हमें बोली कि “तुम लोग आज ही मेरे घर चलोगे और मैंने तुम लोगों के लिए खाने की तैयारी कर ली है तो हम लोग उन्हें मना नहीं कर सकते थे ” क्यों कि उनकी तरफ से हमारे लिए यही यादगार उपहार दिया गया था ।
फिर गए हम सभी रामश्री आया के घर और घर में कदम रखते ही बहुत ही सादगीपूर्ण वातावरण में अपनी दोनों बहुओं से मिलवाया । उस समय हमको इतनी समझ नहीं थी पर अब उस प्यारे से रिश्ते की याद बनी हुई है और अभी समझा कि कितने सौहाद्रपूर्ण तरीके से एक सास का रिश्ता अपनी बहुओं के साथ टिका हुआ था “काश कि ऐसी सास जैसी सोच सभी की हो तो कितना अच्छा” जबकि उसके दोनों बेटे बाहर नौकरी करते थे, उसके बावजूद भी रामश्री आया ने अपनी बहुओं के साथ बेटी जैसा व्यवहार करते हुए अपने पोते-पोतियोंं की भी देखरेख कर रही थी और साथ ही हमारे स्कूल में पढ़ा भी रही थी उनको, यह तारीफे काबिल है । उस जमाने में भी ऐसी सोच और ” आज ये स्थिति है कि पढे-लिखे लोग भी ऐसा व्यवहार कम ही बरकरार रख पाते हैं” । इसीलिए कहते हैं न छोटे लोग नहीं छोटी तो सोच है ।
अरे मैंने रामश्री आया के घर खाने का जिक्र तो किया ही नहीं, बताऊं उन्होंने अपनी बहुओं की सहायता से हमारे लिए गाजर का हलवा, दाल-बाटी, लहसून की चटनी और बेंगन का भर्ता बनाया था विशेष रूप से, तो फिर हमें खाने का आनंद लेना ही पड़ा और कोई इतने प्यार से आग्रह के साथ खिलाए और हम ना खाएं, यह तो हो नहीं सकता न । ” ये वह यादगार पल जिन्हें हम अपने दिल में अभी तक संजीवनी के रूप में संजोए हुए है” ।
फेरवल के मस्त समापन समारोह के साथ रामश्री आया के यहाँ बने भोजन का मजेदार जायका लेते हुए घर पहुंचे, शाम के 7 बज रहे थे, अब तो हमें लगा कि हमारी खैर नहीं । माता-पिता बहुत चिंता कर रहे थे, पर रामश्री आया ने पूर्ण सुरक्षा व्यवस्था के साथ हमें माता-पिता के पास पहुंचाया, तो यह होता है अटूट विश्वास जो उस समय हमारे माता-पिता को रामश्री आया पर पूर्ण रूप से था और उसने भी अपनी जिम्मेदारी बखूबी निभाई, जिसकी याद अभी तक जीवित है और सदा ही रहेगी ।
तो फिर अपनी आख्या के माध्यम से बताइएगा ज़रूर कि आपको मेरे यादगार पल कैसे लगे ।
धन्यवाद आपका ।
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